ज़मीं को और ऊँचा मत उठाओ
ज़मीं का आसमाँ से सर लगेगा
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सजाते हो बदन बेकार 'जावेद'
तर्क करनी थी हर इक रस्म-ए-जहाँ
हर लम्हा मर्ग-ओ-ज़ीस्त में पैकार देखना
फूल के लायक़ फ़ज़ा रखनी ही थी
फिर नई हिजरत कोई दरपेश है
कभी सोचा है मिट्टी के अलावा
दुनिया ने जब डराया तो डरने में लग गया
हर इक रस्ते पे चल कर सोचते हैं
चमका जो चाँद रात का चेहरा निखर गया
कोई रिश्ता न हो फिर भी रिश्ते बहुत
तुम अपने अक्स में क्या देखते हो