यक़ीं का दाएरा देखा है किस ने
गुमाँ के दाएरे में क्या नहीं है
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साहिल पे लोग यूँही खड़े देखते रहे
ज़मीं को और ऊँचा मत उठाओ
फिर नई हिजरत कोई दरपेश है
जो गुज़रता है गुज़र जाए जी
हर लम्हा मर्ग-ओ-ज़ीस्त में पैकार देखना
तर्क करनी थी हर इक रस्म-ए-जहाँ
आप के जाते ही हम को लग गई आवारगी
चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया
तुम अपने अक्स में क्या देखते हो
कोई रिश्ता न हो फिर भी रिश्ते बहुत
देखते हम भी हैं कुछ ख़्वाब मगर हाए रे दिल
कभी प्यारा कोई मंज़र लगेगा