तर्क करनी थी हर इक रस्म-ए-जहाँ
हाँ मगर रस्म-ए-वफ़ा रखनी ही थी
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इक सैल-ए-बे-पनाह की सूरत रवाँ है वक़्त
कोई रिश्ता न हो फिर भी रिश्ते बहुत
जो गुज़रता है गुज़र जाए जी
चाँदनी रात में हर दर्द सँवर जाता है
यक़ीं का दाएरा देखा है किस ने
लगे है आसमाँ जैसा नहीं है
मंज़रों के भी परे हैं मंज़र
देखते हम भी हैं कुछ ख़्वाब मगर हाए रे दिल
हर लम्हा मर्ग-ओ-ज़ीस्त में पैकार देखना
जानिब-ए-दर देखना अच्छा नहीं
चमका जो चाँद रात का चेहरा निखर गया
फिर नई हिजरत कोई दरपेश है