शाइरी पेट की ख़ातिर 'जावेद'
बीच बाज़ार के आ बैठी है
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हर इक रस्ते पे चल कर सोचते हैं
आप के जाते ही हम को लग गई आवारगी
जब थी मंज़िल नज़र में तो रस्ता था एक
समुंदर पार आ बैठे मगर क्या
मैं तेरी ही आवाज़ हूँ और गूँज रहा हूँ
साहिल पे लोग यूँही खड़े देखते रहे
ज़मीं को और ऊँचा मत उठाओ
कोई रिश्ता न हो फिर भी रिश्ते बहुत
इक सैल-ए-बे-पनाह की सूरत रवाँ है वक़्त
इस ही बुनियाद पर क्यूँ न मिल जाएँ हम
कभी प्यारा कोई मंज़र लगेगा
चाँदनी रात में हर दर्द सँवर जाता है