साहिल पे लोग यूँही खड़े देखते रहे
दरिया में हम जो उतरे तो दरिया उतर गया
Javed Akhtar
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Gulzar
Ahmad Faraz
Allama Iqbal
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
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हर लम्हा मर्ग-ओ-ज़ीस्त में पैकार देखना
याद यूँ होश गँवा बैठी है
समुंदर पार आ बैठे मगर क्या
फूल के लायक़ फ़ज़ा रखनी ही थी
अश्क ढलते नहीं देखे जाते
इक सैल-ए-बे-पनाह की सूरत रवाँ है वक़्त
जानिब-ए-दर देखना अच्छा नहीं
हम क्या कहें कि आबला-पाई से क्या मिला
नंगे पाँव की आहट थी या नर्म हवा का झोंका था
ज़मीं को और ऊँचा मत उठाओ
तुम अपने अक्स में क्या देखते हो