फिर नई हिजरत कोई दरपेश है
ख़्वाब में घर देखना अच्छा नहीं
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चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया
अश्क ढलते नहीं देखे जाते
हम क्या कहें कि आबला-पाई से क्या मिला
कोई रिश्ता न हो फिर भी रिश्ते बहुत
साहिल पे लोग यूँही खड़े देखते रहे
लगे है आसमाँ जैसा नहीं है
तुम अपने अक्स में क्या देखते हो
मैं तेरी ही आवाज़ हूँ और गूँज रहा हूँ
कभी सोचा है मिट्टी के अलावा
शाइरी पेट की ख़ातिर 'जावेद'
कभी प्यारा कोई मंज़र लगेगा