कभी सोचा है मिट्टी के अलावा
हमें कहते हैं ये दीवार-ओ-दर क्या
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ज़मीं को और ऊँचा मत उठाओ
रूह को क़ालिब के अंदर जानना मुश्किल हुआ
मंज़रों के भी परे हैं मंज़र
याद यूँ होश गँवा बैठी है
कोई रिश्ता न हो फिर भी रिश्ते बहुत
चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया
यक़ीं का दाएरा देखा है किस ने
देखते हम भी हैं कुछ ख़्वाब मगर हाए रे दिल
अश्क ढलते नहीं देखे जाते
तुम अपने अक्स में क्या देखते हो
दुनिया ने जब डराया तो डरने में लग गया