हर इक रस्ते पे चल कर सोचते हैं
ये रस्ता जा रहा है अपने घर क्या
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जब थी मंज़िल नज़र में तो रस्ता था एक
समुंदर पार आ बैठे मगर क्या
अश्क ढलते नहीं देखे जाते
शाइरी पेट की ख़ातिर 'जावेद'
मंज़रों के भी परे हैं मंज़र
इक सैल-ए-बे-पनाह की सूरत रवाँ है वक़्त
जानिब-ए-दर देखना अच्छा नहीं
चाँदनी रात में हर दर्द सँवर जाता है
तर्क करनी थी हर इक रस्म-ए-जहाँ
चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया
याद यूँ होश गँवा बैठी है
हम क्या कहें कि आबला-पाई से क्या मिला