अश्क ढलते नहीं देखे जाते
दिल पिघलते नहीं देखे जाते
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जानिब-ए-दर देखना अच्छा नहीं
चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया
हम क्या कहें कि आबला-पाई से क्या मिला
चाँदनी रात में हर दर्द सँवर जाता है
चमका जो चाँद रात का चेहरा निखर गया
तर्क करनी थी हर इक रस्म-ए-जहाँ
दुनिया ने जब डराया तो डरने में लग गया
कभी प्यारा कोई मंज़र लगेगा
मैं तेरी ही आवाज़ हूँ और गूँज रहा हूँ
फिर नई हिजरत कोई दरपेश है
रूह को क़ालिब के अंदर जानना मुश्किल हुआ
हर इक रस्ते पे चल कर सोचते हैं