याद यूँ होश गँवा बैठी है

याद यूँ होश गँवा बैठी है

जिस्म से जान जुदा बैठी है

राह तकना है अबस सो जाओ

धूप दीवार पे आ बैठी है

आशियाने का ख़ुदा ही हाफ़िज़

घात में तेज़ हवा बैठी है

दस्त-ए-गुल-चीं से मुरव्वत कैसी

शाख़ फूलों को गँवा बैठी है

कैसे आए किसी गुलशन में बहार

दश्त में आबला-पा बैठी है

शहर आसेब-ज़दा लगता है

कूचे कूचे में बला बैठी है

चार कमरों के मकाँ में अपने

इक पछल-पाई भी आ बैठी है

शाइरी पेट की ख़ातिर 'जावेद'

बीच बाज़ार के आ बैठी है

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