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रूह को क़ालिब के अंदर जानना मुश्किल हुआ - अब्दुल्लाह जावेद कविता - Darsaal

रूह को क़ालिब के अंदर जानना मुश्किल हुआ

रूह को क़ालिब के अंदर जानना मुश्किल हुआ

लफ़्ज़ में एहसास को पहचानना मुश्किल हुआ

ले उड़ी पत्ते हवा तो शाख़-ए-गुल बे-बस हुई

फूल पर साए की चादर तानना मुश्किल हुआ

अपने ख़लवत-ख़ाना-ए-दिल से जो निकले तो हमें

सब के ग़म में अपना ग़म भी जानना मुश्किल हुआ

वक़्त ने जब आइना हम को दिखाया रो पड़े

अपनी सूरत आप ही पहचानना मुश्किल हुआ

इस मशीनी-अहद में क्या ज़ात क्या इरफ़ान-ए-ज़ात

आदमी को आदमी गर्दानना मुश्किल हुआ

जुस्तुजू-ए-ला'ल-ओ-गौहर से भी बाज़ आए वो लोग

ख़िर्मन-ए-ख़ाशाक जिन से छानना मुश्किल हुआ

दिल न छोटा कीजिए ना-क़दरी-ए-अहबाब पर

ऐब-जूयों को हुनर पहचानना मुश्किल हुआ

क्या करें 'जावेद' इस बहरूपियों के दौर में

गुल को गुल काँटे को काँटा मानना मुश्किल हुआ

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