हर लम्हा मर्ग-ओ-ज़ीस्त में पैकार देखना

हर लम्हा मर्ग-ओ-ज़ीस्त में पैकार देखना

खींची हुई है वक़्त ने तलवार देखना

इस दोपहर की धूप में साया कहाँ मिले

दिन ढल चले तो फिर कहीं दीवार देखना

अब तो सफ़र के सख़्त मराहिल हैं और हम

जब पास आए मंज़िल-ए-दिलदार देखना

बे-ताबियाँ हों लाख मगर उस के रू-ब-रू

छोड़ें न हाथ दामन-ए-पिंदार देखना

ऐ मस्लहत की पस्त ज़मीनों के बासियो

कितनी बुलंदियाँ हैं सर-ए-दार देखना

ज़र्रा भी आफ़्ताब से कमतर नहीं यहाँ

यारो मगर ब-दीदा-ए-बेदार देखना

'जावेद' हम हैं और है एहसास का ख़ुलूस

यारों के पास झूट के तूमार देखना

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