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इक सैल-ए-बे-पनाह की सूरत रवाँ है वक़्त - अब्दुल्लाह जावेद कविता - Darsaal

इक सैल-ए-बे-पनाह की सूरत रवाँ है वक़्त

इक सैल-ए-बे-पनाह की सूरत रवाँ है वक़्त

तिनके समझ रहे हैं कि वहम-ओ-गुमाँ है वक़्त

परखो तो जैसे तेग़-ए-दो-दम है खिंची हुई

टालो तो एक उड़ता हुआ सा धुआँ है वक़्त

जो दिल हदफ़ हुआ हो वो शायद बता सके

नावक भी आप आप ही चढ़ती कमाँ है वक़्त

हम उस के साथ हैं कि वो है अपने साथ साथ

किस को ख़बर कि हम हैं रवाँ या रवाँ है वक़्त

तारीख़ क्या है वक़्त के क़दमों की गर्द है

क़ौमों के औज-ओ-पस्त की इक दास्ताँ है वक़्त

अगले सुख़न-वरों ने जिसे आसमाँ कहा

सच पूछिए तो आज वही आसमाँ है वक़्त

हमदम नहीं रफ़ीक़ नहीं हम-नवा नहीं

लेकिन हमारा सब से बड़ा राज़दाँ है वक़्त

कल काएनात अपने जिलौ में लिए हुए

'जावेद' हस्त-ओ-बूद का इक कारवाँ है वक़्त

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