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चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया - अब्दुल्लाह जावेद कविता - Darsaal

चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया

चाँदनी का रक़्स दरिया पर नहीं देखा गया

आप याद आए तो ये मंज़र नहीं देखा गया

आप के जाते ही हम को लग गई आवारगी

आप के जाते ही हम से घर नहीं देखा गया

अपनी सारी कज-कुलाही दास्ताँ हो कर रही

इश्क़ जब मज़हब किया तो सर नहीं देखा गया

फूल को मिट्टी में मिलता देख कर मिट्टी हुए

हम से कोई फूल मिट्टी पर नहीं देखा गया

जिस्म के अंदर सफ़र में रूह तक पहुँचे मगर

रूह के बाहर रहे अंदर नहीं देखा गया

जिस गदा ने आप के दर पर सदा दी एक बार

उस गदा को फिर किसी दर पर नहीं देखा गया

आप को पत्थर लगे 'जावेद' जी देखा है ये

आप के हाथों में गो पत्थर नहीं देखा गया

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