अब्दुल्लाह जावेद कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का अब्दुल्लाह जावेद
नाम | अब्दुल्लाह जावेद |
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अंग्रेज़ी नाम | Abdullah Javed |
ज़मीं को और ऊँचा मत उठाओ
यक़ीं का दाएरा देखा है किस ने
तुम अपने अक्स में क्या देखते हो
तर्क करनी थी हर इक रस्म-ए-जहाँ
शाइरी पेट की ख़ातिर 'जावेद'
सजाते हो बदन बेकार 'जावेद'
साहिल पे लोग यूँही खड़े देखते रहे
फिर नई हिजरत कोई दरपेश है
मंज़रों के भी परे हैं मंज़र
कभी सोचा है मिट्टी के अलावा
जब थी मंज़िल नज़र में तो रस्ता था एक
इस ही बुनियाद पर क्यूँ न मिल जाएँ हम
हर इक रस्ते पे चल कर सोचते हैं
देखते हम भी हैं कुछ ख़्वाब मगर हाए रे दिल
अश्क ढलते नहीं देखे जाते
आप के जाते ही हम को लग गई आवारगी
याद यूँ होश गँवा बैठी है
समुंदर पार आ बैठे मगर क्या
रूह को क़ालिब के अंदर जानना मुश्किल हुआ
फूल के लायक़ फ़ज़ा रखनी ही थी
नंगे पाँव की आहट थी या नर्म हवा का झोंका था
मैं तेरी ही आवाज़ हूँ और गूँज रहा हूँ
लगे है आसमाँ जैसा नहीं है
कोई रिश्ता न हो फिर भी रिश्ते बहुत
कभी प्यारा कोई मंज़र लगेगा
जो गुज़रता है गुज़र जाए जी
जानिब-ए-दर देखना अच्छा नहीं
हम क्या कहें कि आबला-पाई से क्या मिला
हर लम्हा मर्ग-ओ-ज़ीस्त में पैकार देखना
इक सैल-ए-बे-पनाह की सूरत रवाँ है वक़्त