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शराब लाल-ए-लब-ए-दिल-बराँ है मुझ कूँ मुबाह - अब्दुल वहाब यकरू कविता - Darsaal

शराब लाल-ए-लब-ए-दिल-बराँ है मुझ कूँ मुबाह

शराब लाल-ए-लब-ए-दिल-बराँ है मुझ कूँ मुबाह

अब ऐश-ओ-इशरत-ए-दोनों-जहाँ है मुझ कूँ मुबाह

यही है फ़र्क़ हम और तुम मुनीं सुन ऐ ज़ाहिद

वहाँ जो तुझ को मिलेगा यहाँ है मुझ कूँ मुबाह

जिन्हों के तीर-ए-मिज़ा दिल कूँ फोड़ चलते हैं

वो शोख़ दिलबर-ए-अबरू-कमाँ है मुझ कूँ मुबाह

शराब ओ शाहिद ओ ख़ल्वत सियाह-मस्ती होश

इसी जहान मुनीं बेगमाँ है मुझ कूँ मुबाह

ख़राब दुख़्तर-ए-रज़ के हुए हैं सब 'यकरू'

अजब कि शैख़ कहे है कहाँ है मुझ कूँ मुबाह

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