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गल को शर्मिंदा कर ऐ शोख़ गुलिस्तान में आ - अब्दुल वहाब यकरू कविता - Darsaal

गल को शर्मिंदा कर ऐ शोख़ गुलिस्तान में आ

गल को शर्मिंदा कर ऐ शोख़ गुलिस्तान में आ

लब सीं ग़ुंचे का जिगर ख़ूँ करो मुस्क्यान में आ

वही इक जल्वा-नुमा जग में है दूजा कोई नहीं

देख वाजिब कूँ सदा मजमा-ए-इम्कान में आ

ज़िंदगी मुझ दिल-ए-मुर्दा की तौहीं है मत जा

दिल से गर ख़ुश नहीं ऐ शोख़ मिरी जान में आ

गुल दिल-ए-ग़ुंचा नमन तंग हो रंग-ओ-बू सीं

जब करे याद तिरे लब के तईं ध्यान में आ

गर तू मुश्ताक़ है दिलबर सफ़र-ए-दरिया का

आ के कर मौज मिरे दीदा-ए-गिरयान में आ

मत मिला कर तू रक़ीबाँ सीं सभी पाजी हैं

देख कर क़द्र आपस का ऐ सनम शान में आ

यूँ मिरा दिल तिरे कूचे का बला-गर्दां है

ज्यूँ कबूतर उड़े है छतरी के गर्दान में आ

गर करो क़त्ल मिरे दिल कूँ तग़ाफ़ुल सीं जान

फिर के दावा न करूँ हश्र के मैदान में आ

दिल-ए-'यकरू' है तिरा पाए बंधिया काकुल का

याद रख उस कूँ सदा मत कभू निस्यान में आ

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