अब्दुल वहाब यकरू कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का अब्दुल वहाब यकरू
नाम | अब्दुल वहाब यकरू |
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अंग्रेज़ी नाम | Abdul Wahab Yakro |
रक़ीबान-ए-सियह-रू शहर-ए-देहली के मुसाहिब हैं
प्यासा मत जला साक़ी मुझे गर्मी सीं हिज्राँ की
न होवे क्यूँ के गर्दूं पे सदा दिल की बुलंद अपनी
ख़म-ए-मेहराब-ए-अबरुवाँ के बीच
कमाँ अबरू निपट शह-ज़ोर हैगा
जो तूँ मुर्ग़ा नहीं है ऐ ज़ाहिद
जिगर में ल'अल के आतिश पड़ी है
जने देखा सो ही बौरा हुआ है
जब कि पहरा है तीं लिबास ज़र्रीं
इश्क़ के फ़न नीं हूँ मैं अवधूत
इश्क़ का तिफ़्ल गिर ज़मीं ऊपर
तुझ क़द की अदा सर्व-ए-गुलिस्ताँ सीं कहूँगा
तेरा ही मैं गदा हूँ मेरा तू शाह बस है
सुनाया यार नीं आ कर दो तारा
शराब लाल-ए-लब-ए-दिल-बराँ है मुझ कूँ मुबाह
मुझ सीं और दिलरुबा सीं है अन-बन
मिरा दिल मुब्तला है झाँवली का
मस्त अँखियाँ का देख दुम्बाला
लोग हर-चंद पंद करते हैं
क्यूँके करे न शहर को रो रो उजाड़ चश्म
ख़ुश-क़दाँ जब ख़िराम करते हैं
कब करे क़स्द यार आवन का
जब करें मुझ तिरे का ख़्याल अँखियाँ
इश्क़ है इश्क़-ए-पाक-बाज़ी का
इस तरह रुख़ फेरते हो सुनते ही बोसे की बात
गुदाज़-ए-आतिश-ए-ग़म सीं हुई हैं बावली अँखियाँ
गल को शर्मिंदा कर ऐ शोख़ गुलिस्तान में आ
अगर वो गुल-बदन दरिया नहाने बे-हिजाब आवे
अगर नहीं क़स्द ऐ ज़ालिम मिरे दिल के सताने का