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ये सानेहा भी हो गया है रस्ते में - अब्दुल वहाब सुख़न कविता - Darsaal

ये सानेहा भी हो गया है रस्ते में

ये सानेहा भी हो गया है रस्ते में

जो रहनुमा था वही खो गया है रस्ते में

किसी भी आबला-पा को न मिल सकी तस्कीन

अजीब ख़ार कोई बो गया है रस्ते में

इ'ताब-ए-जाँ हुई गर्द-ए-सफ़र किसी के लिए

किसी को अब्र-ए-करम धो गया है रस्ते में

हुदी की लय करो मद्धम ऐ क़ाफ़िले वालो

थकन से चूर कोई सो गया है रस्ते में

मुसाफ़िरान-ए-वफ़ा की कोई ख़बर न मिली

न जाने कौन किधर को गया है रस्ते में

रहेगा साथ कहाँ तक ये देखना है मुझे

वो हम-सुख़न तो मिरा हो गया है रस्ते में

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