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हमें नसीब कोई दीदा-वर नहीं होता - अब्दुल वहाब सुख़न कविता - Darsaal

हमें नसीब कोई दीदा-वर नहीं होता

हमें नसीब कोई दीदा-वर नहीं होता

जो दस्तरस में हमारी हुनर नहीं होता

मैं रोज़ उस से यहीं हम-कलाम होता हूँ

दरून-ए-रूह किसी का गुज़र नहीं होता

जला दिए हैं किसी ने पुराने ख़त वर्ना

फ़ज़ा में ऐसा तो रक़्स-ए-शरर नहीं होता

मोहब्बतों के कई इस्म मैं ने पढ़ डाले

अजब तिलिस्म है वा इस का दर नहीं होता

अगर मैं शब की सियाही न चीर कर निकलूँ

कोई उजाला मिरा हम-सफ़र नहीं होता

किसी के नक़्श-ए-क़दम की थी जुस्तुजू वर्ना

मैं इस तरह तो 'सुख़न' दर-ब-दर नहीं होता

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