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ऐ मेरी आँखो ये बे-सूद जुस्तुजू कैसी - अब्दुल वहाब सुख़न कविता - Darsaal

ऐ मेरी आँखो ये बे-सूद जुस्तुजू कैसी

ऐ मेरी आँखो ये बे-सूद जुस्तुजू कैसी

जो ख़्वाब ख़्वाब रहीं उन की आरज़ू कैसी

रगों में ख़ून है शाख़ों की सुर्ख़-रू ग़ुंचे

ख़िज़ाँ में अब के बहारों की रंग-ओ-बू कैसी

तमाम पत्तों को मौसम ने ज़र्द ज़र्द किया

ये एक शाख़-ए-तमन्ना है सब्ज़-रू कैसी

करो तो याद मिलन के वो अव्वलीं लम्हे

कि छिड़ गई थी निगाहों में गुफ़्तुगू कैसी

ये शहर-ए-दिल में भला आज किस की आमद है

ये महव-ए-रक़्स हैं ख़ुशबूएँ कू-ब-कू कैसी

उफ़ुक़ का चेहरा 'सुख़न' इस कदर उदास है क्यूँ

शफ़क़ के रंग में ये सुर्ख़ी-ए-लहू कैसी

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