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ज़ात उस की कोई अजब शय है - अब्दुल रहमान एहसान देहलवी कविता - Darsaal

ज़ात उस की कोई अजब शय है

ज़ात उस की कोई अजब शय है

जिस से सब वाक़ई अजब शय है

वाक़ई आशिक़ी अजब शय है

आशिक़ी वाक़ई अजब शय है

जिस के दिल को लगी वही जाने

जान-ए-मन दिल-लगी अजब शय है

इस में हरगिज़ नहीं है जा-ए-सुख़न

अल-ग़रज़ ख़ामुशी अजब शय है

बे-ख़ुदी गर हो ख़ुद तो आ के मिले

ऐ ख़ुदा बे-ख़ुदी अजब शय है

उस पे मरता हूँ वक़्त-ए-बोस-ओ-कनार

तेरा कहना न जी अजब शय है

एक से तीस दिन निबाह कि दोस्त

एक से दोस्ती अजब शय है

मुँह पे कह देना ऐब ऐब है ये

ऐब-पोशी अजी अजब शय है

क्या धुआँ-दार शोला-रू है बना

ऊदी पोशाक भी अजब शय है

आरसी उस से अहल-ए-दीद को है

मत कहो आरसी अजब शय है

सर्व को उस के क़द से क्या निस्बत

मुंसिफ़ो रास्ती अजब शय है

क़िबला-ओ-काबा इस को समझे है

हरम-ए-शैख़-जी अजब शय है

एक बोसा न दो न तीन न चार

यार जी मुंसिफ़ी अजब शय है

होंट होते हैं वक़्त-ए-ख़ंदा जुदा

चुप भली ख़ामुशी अजब शय है

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