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तुम्हारी चश्म ने मुझ सा न पाया - अब्दुल रहमान एहसान देहलवी कविता - Darsaal

तुम्हारी चश्म ने मुझ सा न पाया

तुम्हारी चश्म ने मुझ सा न पाया

दिया सुर्मा भी और चिपका न पाया

ख़ुदा को क्या कहूँ पाया न पाया

कि वस्ल-ए-बे-ख़ुदी असला न पाया

बहुत सूरत को मैं तरसा न पाया

न पाया वो बहुत तरसा न पाया

सहाब-ए-तर ने बहर-ए-ख़ुश्क सब ने

हमारा दीदा-ए-तर सा न पाया

चले हम दिल जले इस बज़्म से यार

जले हाथों से इक बेड़ा न पाया

सदा सूरज ने दिन भर उस को ढूँडा

कभी वो चाँद का टुकड़ा न पाया

बहुत अच्छा हुआ अच्छी है क़िस्मत

मरीज़-ए-इश्क़ को अच्छा न पाया

जो इस गर्दन का नक़्शा है वो हम ने

सुराही-दार मोती का न पाया

दुर्र-ए-अश्क-ए-मुसलसल ऐ शह-ए-इश्क़

तिरी दौलत से ये सेहरा न पाया

बहुत सीधा बनाऊँगा फ़लक को

कि इस कज को कभी सीधा न पाया

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