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तीर पहलू में नहीं ऐ रुफ़क़ा-ए-पर्वाज़ - अब्दुल रहमान एहसान देहलवी कविता - Darsaal

तीर पहलू में नहीं ऐ रुफ़क़ा-ए-पर्वाज़

तीर पहलू में नहीं ऐ रुफ़क़ा-ए-पर्वाज़

ताइर-ए-जान के ये पर हैं बराए पर्वाज़

यूँ तो पर-बंद हूँ पर यार परों पर मेरे

जो गिरह तेरी है सो उक़्दा-कुशा-ए-पर्वाज़

एक पर्वाज़ की ताक़त नहीं उस जा से मुझे

और जो हुक्म हो सय्याद सिवाए पर्वाज़

देखियो नामा न लाया हो कबूतर इस का

कुछ मिरे कान में आती है सदा-ए-परवाज़

बे-पर-ओ-बाली पे ग़श हूँ कि ये हर दम है रफ़ीक़

थी पर-ओ-बाल ही तक हम से वफ़ा-ए-पर्वाज़

अपने नज़दीक तो इस दाम में फँस कर सय्याद

किसी कम-बख़्त को होवेगा हवा-ए-पर्वाज़

तो भी उस तक है रसाई मुझे 'एहसाँ' दुश्वार

दाम लूँ गर पर-ए-जिब्रील बरा-ए-पर्वाज़

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