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पूछी न ख़बर कभी हमारी - अब्दुल रहमान एहसान देहलवी कविता - Darsaal

पूछी न ख़बर कभी हमारी

पूछी न ख़बर कभी हमारी

ली ख़ूब ख़बर अजी हमारी

हम लाएक़-ए-बंदगी नहीं तो

बस ख़ैर है बंदगी हमारी

ऐ दीदा-ए-नम न थम तू हरगिज़

है इस में ही बेहतरी हमारी

याँ तेरी कमर ही जब न देखें

फिर हेच है ज़िंदगी हमारी

हम जान चुके कि जान के साथ

जावेगी ये जांकनी हमारी

चलने का लिया जो नाम तू ने

बस जान अभी चली हमारी

बिगड़े हो भले भी बात कहते

क़िस्मत ही बुरी बनी हमारी

उस ज़ुल्फ़ के सिलसिले में हैं हम

है उम्र बहुत बड़ी हमारी

क्यूँकर न कटी ज़बाँ तुम्हारी

हाँ और करो बदी हमारी

कहते हैं पलट गया वो रह से

तक़दीर उलट गई हमारी

अब हँसते हैं हम पे लोग वर्ना

मशहूर थी याँ हँसी हमारी

हम हटते हैं मुल्क-ए-इश्क़ से कब

हेटी किसी ने कही हमारी

क्या काम किसी से हम को 'एहसान'

हम और ये बे-कसी हमारी

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