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फिर आया जाम-ब-कफ़ गुल-एज़ार ऐ वाइज़ - अब्दुल रहमान एहसान देहलवी कविता - Darsaal

फिर आया जाम-ब-कफ़ गुल-एज़ार ऐ वाइज़

फिर आया जाम-ब-कफ़ गुल-एज़ार ऐ वाइज़

शिकस्त-ए-तौबा की फिर है बहार ऐ वाइज़

न जान मुझ को तू मुख़्तार सख़्त हूँ मजबूर

नहीं है दिल पे मिरा इख़्तियार ऐ वाइज़

अनार-ए-ख़ुल्द को तू रख के हैं पसंद हमें

कुचें वो यार की रश्क-ए-अनार ऐ वाइज़

उसी की काकुल पुर-पेच की क़सम है मुझे

कि तेरे वाज़ हैं सब पेचदार ऐ वाइज़

हमारे दर्द को क्या जाने तू कि तुझ को है

न दर्द-ए-यार न दर्द-ए-दयार ऐ वाइज़

किया जो ज़िक्र-ए-क़यामत ये क्या क़यामत की

कि याद आया मुझे क़द-ए-यार ऐ वाइज़

भुलाएगा न कभी याद-ए-गुल-रुख़ाँ 'एहसाँ'

कोई वो समझे है समझा हज़ार ऐ वाइज़

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