म्याँ क्या हो गर अबरू-ए-ख़मदार को देखा
म्याँ क्या हो गर अबरू-ए-ख़मदार को देखा
क्यूँ मेरी तरफ़ देख के तलवार को देखा
आँखें मिरी फूटें तिरी आँखों के बग़ैर आह
गर मैं ने कभी नर्गिस-ए-बीमार को देखा
देखे न मिरे अश्क-ए-मुसलसल कभी तुम ने
अपनी ही सदा मोतियों के हार को देखा
इतवार को आना तिरा मालूम कि इक उम्र
बे-पीर तिरे हम ने ही अतवार को देखा
देखा न कभू कूचा-ए-दिलदार को रंगीं
बस हम ने भी इस दीदा-ए-ख़ूँ-बार को देखा
उस में भी दर-अंदाज़ों ने सौ रख़्ने निकाले
'एहसाँ' ने जो उस रख़्ना-ए-दीवार को देखा
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