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कुछ तौर नहीं बचने का ज़िन्हार हमारा - अब्दुल रहमान एहसान देहलवी कविता - Darsaal

कुछ तौर नहीं बचने का ज़िन्हार हमारा

कुछ तौर नहीं बचने का ज़िन्हार हमारा

जी ले ही के जावेगा ये आज़ार हमारा

कूचे से तिरे कूच है ऐ यार हमारा

जी ले ही चली हसरत-ए-दीदार हमारा

तू हम को उठा लीजियो उस वक़्त इलाही

जिस वक़्त उठे पहलू से दिलदार हमारा

यारा है कहाँ इतना कि इस यार को यारो

मैं ये कहूँ ऐ यार है तू यार हमारा

हम पादशह-ए-मुम्लिकत-ए-इश्क़ हैं नाहक़

मंसूर सा मारा गया सरदार हमारा

कह दीजियो मकहूली को ऐ गर्दिश-ए-तालेअ'

हाँ जल्दी से ला तख़्त-ए-हवा-दार हमारा

अबरू की तिरी बैत की किया बात व-लेकिन

है आह का मिस्रा भी धुआँ-दार हमारा

'एहसाँ' तू ग़ज़ल फ़ारसी ही अपनी कहा कर

दिल रेख़्ता तेरे से है बेज़ार हमारा

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