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बाग़ में जब कि वो दिल ख़ूँ-कुन-ए-हर-गुल पहुँचे - अब्दुल रहमान एहसान देहलवी कविता - Darsaal

बाग़ में जब कि वो दिल ख़ूँ-कुन-ए-हर-गुल पहुँचे

बाग़ में जब कि वो दिल ख़ूँ-कुन-ए-हर-गुल पहुँचे

बिलबिलाती हुई गुलज़ार में बुलबुल पहुँचे

सदमा-ए-शाम-ए-अजल मुझ को न बिल्कुल पहुँचे

गर मिरी दाद को कल तक भी वो काकुल पहुँचे

दिल भी ले कर अलम-ए-आह मुक़ाबिल पहुँचा

नेज़ा-बाज़ान-ए-मिज़ा जब ब-तग़ाफ़ुल पहुँचे

मेहर कूचा तिरा झाड़े है ब-जारूब-ए-शुआ'

कि इसी तरह बहम तुझ से तवस्सुल पहुँचे

अपना ये मुँह तो न था आप तलक हम पहुँचें

आप का जब कि हुआ हम पे तफ़ज़्ज़ुल पहुँचे

हम-रह-ए-यास-ओ-अलम दश्त-ए-जुनूँ में कल हम

ब-तहम्मुल ब-तअम्मुल ब-तजम्मुल पहुँचे

गर तिरे वज़्न पे मैं सारे क़्वाफ़ी बाँधूँ

दम तिरा नाक में ऐ बाब-ए-तफ़व्वुल पहुँचे

ख़ाना-आबाद तुम्हारा हो कि हम हज़रत-ए-इश्क़

नफ़अ' को तुम से ब-अय्याम-ए-तवक्कुल पहुँचे

दर्द-ओ-ग़म यास-ओ-अलम सोज़-ए-दिल ओ दाग़-ए-जिगर

तोहफ़े जो आप ने भेजे हमें बिल्कुल पहुँचे

जब गया हुस्न तो आया तिरे इख़्लास का बार

अब तरक़्क़ी है तब अय्याम-ए-तनज़्ज़ुल पहुँचे

क़हर इक रिंद पे क़ुल पीर-ए-मुग़ाँ ने था पढ़ा

शे'र ये हम ने सुना सुनने को जब क़ुल पहुँचे

तर्स-ए-उक़बा है तो मय-ख़ाना में रह ऐ ज़ाहिद

तब बचो वाँ जो बजा कान में क़ुलक़ुल पहुँचे

रश्क-ए-गुल बाग़ में बैठा था तो हम भी 'एहसाँ'

ये ग़ज़ल पढ़ते हुए वाँ ब-तजाहुल पहुँचे

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