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तुझ को अग़राज़-ए-जहाँ से मावरा समझा था मैं - अब्दुल रहमान बज़्मी कविता - Darsaal

तुझ को अग़राज़-ए-जहाँ से मावरा समझा था मैं

तुझ को अग़राज़-ए-जहाँ से मावरा समझा था मैं

पैकर-ए-इख़्लास तस्वीर-ए-वफ़ा समझा था मैं

जब लिया नाम-ए-ख़ुदा कश्ती किनारे लग गई

जाने किस किस बुल-हवस को नाख़ुदा समझा था मैं

था किसी ज़ालिम का अपना मुद्दअा-ए-ज़िंदगी

जिस को अपनी ज़िंदगी का मुद्दआ समझा था मैं

था किसी गुम-कर्दा-ए-मंज़िल का नक़्श-ए-बे-सबात

जिस को मीर-ए-कारवाँ का नक़्श-ए-पा समझा था में

इंतिहा-ए-यास में अब क्या कहूँ? किस से कहूँ?

इब्तिदा-ए-शौक़ में किस किस को क्या समझा था मैं

आ गया जब आ गया उन को ख़याल-ए-इल्तिफ़ात

अपने शौक़-ए-दिल को 'बज़्मी' ना-रसा समझा था मैं

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