कोई बस्ती कोई क़र्या नहीं है

कोई बस्ती कोई क़र्या नहीं है

जहाँ मैं ने तुझे पाया नहीं है

जिधर देखो सुकूत-ए-बेकराँ है

सर-ए-मक़्तल तो सन्नाटा नहीं है

दिए बुझ जाएँ तो बुझती नहीं है

हवा को क्यूँ ये अंदाज़ा नहीं है

अजब बस्ती है जिस में आ बसे हैं

सभी झूटे कोई सच्चा नहीं है

'ज़िया' मैं ने जिसे समझा है बरसों

उसे देखा मगर देखा नहीं है

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