मैं शब-ए-हिज्र क्या करूँ तन्हा
मैं शब-ए-हिज्र क्या करूँ तन्हा
याद में तेरी गुम रहूँ तन्हा
हैं इधर गर्दिशें ज़माने की
है मुक़ाबिल उधर जुनूँ तन्हा
कितने बे-नूर हैं ये हंगामे
मैं भरे शहर में भी हूँ तन्हा
आदमी घिर गया मसाइल में
रह गई ज़ीस्त बे-सुकूँ तन्हा
वो तो इस दौर के नहीं इंसाँ
मिल गया है जिन्हें सुकूँ तन्हा
हम-सफ़र जब 'नियाज़' अँधेरे हैं
शम्अ' घबरा रही है क्यूँ तन्हा
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