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पुर्सिश है चश्म-ए-अश्क-फ़शाँ पर न आए हर्फ़ - अब्दुल मन्नान तरज़ी कविता - Darsaal

पुर्सिश है चश्म-ए-अश्क-फ़शाँ पर न आए हर्फ़

पुर्सिश है चश्म-ए-अश्क-फ़शाँ पर न आए हर्फ़

डूबें भी हम तो सैल-ए-रवाँ पर न आए हर्फ़

दोनों ही अपनी अपनी जगह ला-जवाब हैं

अपने यक़ीं पे उन के गुमाँ पर न आए हर्फ़

ऐ रश्क इतना वहम-ओ-गुमाँ भी बजा नहीं

एहसास-ए-क़ुर्बत-ए-रग-ए-जाँ पर न आए हर्फ़

दिल ना-मुराद शो'ला-ए-आरिज़ से जल गया

डरते थे हम कि सोज़-ए-निहाँ पर न आए हर्फ़

हुशियार बज़्म-ए-ग़ैर में नाम उन का आ न जाए

ऐ नग़्मा-संज जोश-ए-बयाँ पर न आए हर्फ़

तीर-ए-निगाह दिल में तराज़ू हुआ तो हो

अब तेरे अबरुओं की कमाँ पर न आए हर्फ़

हम उन के रू-ब-रू रहे इस मस्लहत से चुप

महफ़िल में अपने इज्ज़-ए-बयाँ पर न आए हर्फ़

उड़ जाए तेग़ से तो रहे सरफ़राज़ सर

कट जाए बात पर तो ज़बाँ पर न आए हर्फ़

इस कश्मकश में तेरी गली से परे रहे

आए कहाँ पे हर्फ़ कहाँ पर न आए हर्फ़

'तर्ज़ी' तवाफ़-ए-ख़ाना-ए-ख़ाली से ख़ुश नहीं

बस जाओ तुम तो दिल के मकाँ पर न आए हर्फ़

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