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मरहला शौक़ का है लफ़्ज़-ओ-बयाँ से आगे - अब्दुल मन्नान तरज़ी कविता - Darsaal

मरहला शौक़ का है लफ़्ज़-ओ-बयाँ से आगे

मरहला शौक़ का है लफ़्ज़-ओ-बयाँ से आगे

एक शो'ला है कोई बर्क़-ए-तपाँ से आगे

अपनी हैरत का तो है इल्म यक़ीं से पहले

तू बता मुझ को है क्या मेरे गुमाँ से आगे

हाँ मिरा शौक़-लक़ा तेरी इनायत ही सही

क्या मिला मुझ को मगर इज्ज़-ए-बयाँ से आगे

क्यूँ बना डाला इसे मेरी निगाहों का ग़ुरूर

तेरा जल्वा है अगर हुस्न-ए-बुताँ से आगे

अपनी ख़ल्वत से कभी तू भी न बाहर झाँका

मुझ को जाने न दिया मेरे मकाँ से आगे

कुछ नहीं इस के सिवा अपनी निगाहों की बिसात

कुछ दिखाई न दिया सूद-ओ-ज़ियाँ से आगे

फ़हम-ओ-इदराक पे भी मेरे है पहरा तेरा

और तू सारे मकाँ सारे ज़माँ से आगे

इम्तिहाँ ख़त्म नहीं होता इसी पर 'तरज़ी'

जू-ए-ख़ूँ लानी है इक अश्क-ए-रवाँ से आगे

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