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ख़ून जब अश्क में ढलता है ग़ज़ल होती है - अब्दुल मन्नान तरज़ी कविता - Darsaal

ख़ून जब अश्क में ढलता है ग़ज़ल होती है

ख़ून जब अश्क में ढलता है ग़ज़ल होती है

जब भी दिल रंग बदलता है ग़ज़ल होती है

तेरे इख़्लास-ए-सितम ही का इसे फ़ैज़ कहें

मुंजमिद दर्द पिघलता है ग़ज़ल होती है

दिल को गरमाती है अश्कों के सितारों की किरन

जब दिया शाम का जलता है ग़ज़ल होती है

शे'र होता है शफ़क़ में जो हिना रचती है

लाला जब ख़ून उगलता है ग़ज़ल होती है

ख़ुश्क सोतों को जगाते हैं पयम्बर के क़दम

रेत से चश्मा उबलता है ग़ज़ल होती है

अपने सीने के मिना में भी तह-ए-ख़ंजर-ए-इश्क़

जब कोई फ़िदया बदलता है ग़ज़ल होती है

फ़िक्र आ जाती है तर्सील के सूरज के तले

जब कोई साया निकलता है ग़ज़ल होती है

दावत-ए-पुर्सिश-ए-अहवाल है यारों से कहो

दरिया जब आँखों का चढ़ता है ग़ज़ल होती है

जज़्बा-ओ-फ़िक्र के ख़ामोश समुंदर के तले

जब भी तूफ़ान मचलता है ग़ज़ल होती है

मेहरबाँ होता है जब जान मोहब्बत 'तर्ज़ी'

दिल-ए-बीमार सँभलता है ग़ज़ल होती है

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