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खुली जब आँख तो देखा कि था बाज़ार का हल्क़ा - अब्दुल मन्नान तरज़ी कविता - Darsaal

खुली जब आँख तो देखा कि था बाज़ार का हल्क़ा

खुली जब आँख तो देखा कि था बाज़ार का हल्क़ा

ख़ुदा मा'लूम कब टूटा मिरे पिंदार का हल्क़ा

तुलू-ए-शाम भी मुझ को नवेद-ए-सुब्ह-ए-फ़र्दा है

कहीं चमके हिलाल-ए-अबरू-ए-ख़म-दार का हल्क़ा

मिरा ख़ून-ए-तमन्ना है हिना-बंद-ए-कफ़-ए-क़ातिल

जुनून-ए-शौक़ काम आया फ़राज़-ए-दार का हल्क़ा

दिल बुत आश्ना कुछ इस तरह सू-ए-हरम आया

बरहमन जैसे निकले तोड़ कर ज़ुन्नार का हल्क़ा

तलब की राह में पा-ए-अना से बारहा उलझा

कभी इंकार का हल्क़ा कभी इक़रार का हल्क़ा

ये कू-ए-ग़म बदल जाए न अब दश्त-ए-तमन्ना से

जुनूँ-अंगेज़ है ज़िंदाँ की हर दीवार का हल्क़ा

हर इक महफ़िल में जाना हर किसी से बात कर लेना

गवारा कर नहीं सकता मिरे मेआ'र का हल्क़ा

लहू क़दमों से यूँ फूटा कि ज़ंजीरें लहक उट्ठीं

मुनव्वर हो गया ज़िंदान-ए-तंग-ओ-तार का हल्क़ा

ग़म-ए-इमरोज़ ने पैमाँ किया है इश्क़-ए-फ़र्दा से

कभी तो होगा शाना-गीर ज़ुल्फ़-ए-यार का हल्क़ा

कोई आसाँ न था लेकिन बहुत मुश्किल न था 'तर्ज़ी'

मिरी ज़र्ब-ए-नफ़स से खुल गया असरार का हल्क़ा

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