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हर आन नई शान है हर लम्हा नया है - अब्दुल मन्नान तरज़ी कविता - Darsaal

हर आन नई शान है हर लम्हा नया है

हर आन नई शान है हर लम्हा नया है

आईना-ए-अय्याम है या तेरी अदा है

रहबर जिसे हैरत से खड़ा देख रहा है

वो रहरव-ए-गुम-गश्ता का नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है

नालों ने ये बुलबुल के बड़ा काम किया है

अब आतिश-ए-गुल ही से चमन जलने लगा है

ऐ जान-ए-वफ़ा दिल के एवज़ दर्द लिया है

कुछ सोच समझ कर ही तो ये काम किया है

पहरों पस-ए-दीवार खड़ा था सो खड़ा है

दीवाना है पाबंद-ए-रह-ए-रस्म-ओ-वफ़ा है

तन्हाई में महसूस हुआ है मुझे अक्सर

जैसे मिरे अंदर से कोई बोल रहा है

तारी है सुकूत आज समुंदर की फ़ज़ा पर

गहराई में शायद कोई तूफ़ान उठा है

करता था जो ख़ामोशी की तल्क़ीन हमेशा

हम-साया मिरा ख़्वाब में वो चीख़ रहा है

ज़िंदाँ के दरीचों से है फिर शौक़ ने झाँका

शायद कि जुनूँ-ख़ेज़ गुलिस्ताँ की हवा है

ये गर्दिश-ए-अय्याम का एहसान है 'तरज़ी'

अब ज़ख़्म-ए-कुहन अपना हरा होने लगा है

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