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ग़ज़ल में फ़न का जौहर जब दिखाते हैं ग़ज़ल वाले - अब्दुल मन्नान तरज़ी कविता - Darsaal

ग़ज़ल में फ़न का जौहर जब दिखाते हैं ग़ज़ल वाले

ग़ज़ल में फ़न का जौहर जब दिखाते हैं ग़ज़ल वाले

ज़मीं को आसमाँ जैसा बनाते हैं ग़ज़ल वाले

बदल देते हैं ख़ारों की ख़लिश गुल की नज़ाकत से

ज़बाँ शबनम की शो'लों को सिखाते हैं ग़ज़ल वाले

कभी पहले ग़ज़ल उन की कभी ख़ुद पेशतर इस से

किसी के दीदा-ओ-दिल में समाते हैं ग़ज़ल वाले

अगर आहों से अपनी कोई मिस्रा गढ़ भी लेते हैं

तो अश्कों से गिरह उस पर लगाते हैं ग़ज़ल वाले

वुफ़ूर-ए-शौक़ की मजबूरियाँ भी कैसी कैसी हैं

किसी का नाम लिख लिख कर मिटाते हैं ग़ज़ल वाले

ज़मीं ज़रख़ेज़ है ये 'मीर' 'ग़ालिब' और 'मोमिन' की

कि जिस में फ़स्ल-ए-ताज़ा अब उगाते हैं ग़ज़ल वाले

ब-इज्ज़-ए-इल्म-ओ-दानिश जाओ उन की बज़्म में 'तरज़ी'

ग़ज़ल की शे'र-बंदी पर बुलाते हैं ग़ज़ल वाले

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