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हर मसर्रत से किनारा कर लिया - अब्दुल मलिक सोज़ कविता - Darsaal

हर मसर्रत से किनारा कर लिया

हर मसर्रत से किनारा कर लिया

हम ने तेरा ग़म गवारा कर लिया

छट गई कुछ शाम-ए-ग़म की तीरगी

अश्क जो उभरा सितारा कर लिया

आँख खुलती ही नहीं है जिस तरह

उन का सोते में नज़ारा कर लिया

लुत्फ़ फ़रमाया निगाह-ए-नाज़ ने

अपने बस में दिल हमारा कर लिया

मेरे ग़मख़्वारो तुम्हारा शुक्रिया

मैं ने अपने ग़म का चारा कर लिया

शब की तन्हाई से फिर घबरा गए

फिर यक़ीं हम ने तुम्हारा कर लिया

सर पे तूफ़ाँ ने उठाया है उसे

जिस ने साहिल से किनारा कर लिया

दुश्मनी में झुक गई उस की कमर

आसमान ने क्या हमारा कर लिया

बिन सहारे डूबना मुश्किल था 'सोज़'

ना-ख़ुदाओं को सहारा कर लिया

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