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मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से - अब्दुल मजीद सालिक कविता - Darsaal

मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से

मिरे दिल में है कि पूछूँ कभी मुर्शिद-ए-मुग़ाँ से

कि मिला जमाल-ए-साक़ी को ये तनतना कहाँ से

वो ये कह रहे हैं हम को तिरे हाल की ख़बर क्या

तू उठा सका निगाहें न बता सका ज़बाँ से

जो उन्हें वफ़ा की सूझी तो न ज़ीस्त ने वफ़ा की

अभी आ के वो न बैठे कि हम उठ गए जहाँ से

मैं अदम के लाला-ज़ारों में नवा-गर-ए-अज़ल था

मुझे खींच लाई ज़ालिम तिरी आरज़ू कहाँ से

मिरी सरनविश्त में था वही दाग़-ए-ना-मुरादी

जो मिला मिरी जबीं को तिरे संग-ए-आस्ताँ से

बचे बिजलियों की ज़द से वही ताएरान-ए-दाना

जो कड़क चमक से पहले निकल आए आशियाँ से

ये है माजरा-ए-वहशत कि मिला सुराग़-ए-महमिल

न ग़ुबार-ए-कारवाँ से न दरा-ए-कारवाँ से

नहीं कुछ समझ में आता ये अजीब माजरा है

कि ज़मीं के रहने वालों को हिदायत आसमाँ से

शब-ए-ग़म जो आई 'सालिक' मिटे बातनी अंधेरे

मिरा दिल हुआ मुनव्वर तब-ओ-ताब-ए-जावेदाँ से

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