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कितनी महबूब थी ज़िंदगी कुछ नहीं कुछ नहीं - अब्दुल हमीद कविता - Darsaal

कितनी महबूब थी ज़िंदगी कुछ नहीं कुछ नहीं

कितनी महबूब थी ज़िंदगी कुछ नहीं कुछ नहीं

क्या ख़बर थी इस अंजाम की कुछ नहीं कुछ नहीं

आज जितने बरादर मिले चाक-चादर मिले

कैसी फैली है दीवानगी कुछ नहीं कुछ नहीं

पेच-दर-पेच चलते गए हम निकलते गए

जाने क्या थी गली-दर-गली कुछ नहीं कुछ नहीं

मौज-दर-मौज इक फ़ासला रफ़्ता रफ़्ता बढ़ा

कश्ती आँखों से ओझल हुई कुछ नहीं कुछ नहीं

साथ मेरे कोई और था ऐ हवा ऐ हवा

नाम तू जिस का लेती रही कुछ नहीं कुछ नहीं

शाम साकित शजर-दर-शजर रहगुज़र रहगुज़र

आँख मलती उठी तीरगी कुछ नहीं कुछ नहीं

जा के तू दिल में दर आएगा मेरे घर आएगा

है जुदाई घड़ी दो घड़ी कुछ नहीं कुछ नहीं

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