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ज़ुल्फ़-ए-बरहम सँभाल कर चलिए - अब्दुल हमीद अदम कविता - Darsaal

ज़ुल्फ़-ए-बरहम सँभाल कर चलिए

ज़ुल्फ़-ए-बरहम सँभाल कर चलिए

रास्ता देख-भाल कर चलिए

मौसम-ए-गुल है अपनी बाँहों को

मेरी बाँहों में डाल कर चलिए

मय-कदे में न बैठिए ताहम

कुछ तबीअ'त बहाल कर चलिए

कुछ न देंगे तो क्या ज़ियाँ होगा

हर्ज क्या है सवाल कर चलिए

है अगर क़त्ल-ए-आम की निय्यत

जिस्म की छब निकाल कर चलिए

किसी नाज़ुक-बदन से टकरा कर

कोई कस्ब-ए-कमाल कर चलिए

या दुपट्टा न लीजिए सर पर

या दुपट्टा सँभाल कर चलिए

यार दोज़ख़ में हैं मुक़ीम 'अदम'

ख़ुल्द से इंतिक़ाल कर चलिए

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