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ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है - अब्दुल हमीद अदम कविता - Darsaal

ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है

ये कैसी सरगोशी-ए-अज़ल साज़-ए-दिल के पर्दे हिला रही है

मिरी समाअत खनक रही है कि तेरी आवाज़ आ रही है

हवादिस-ए-रोज़गार मेरी ख़ुशी से क्या इंतिक़ाम लेंगे

कि ज़िंदगी वो हसीन ज़िद है कि बे-सबब मुस्कुरा रही है

तिरा तबस्सुम फ़रोग़-ए-हस्ती तिरी नज़र ए'तिबार-ए-मस्ती

बहार इक़रार कर रही है शराब ईमान ला रही है

फ़साना-ख़्वाँ देखना शब-ए-ज़िंदगी का अंजाम तो नहीं है

कि शम्अ के साथ रफ़्ता रफ़्ता मुझे भी कुछ नींद आ रही है

अगर कोई ख़ास चीज़ होती तो ख़ैर दामन भिगो भी लेते

शराब से तो बहुत पुराने मज़ाक़ की बास आ रही है

ख़िरद के टूटे हुए सितारे 'अदम' कहाँ तक चराग़ बनते

जुनूँ की रौशन रविश है आख़िर दिलों को रस्ते दिखा रही है

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