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वो अबरू याद आते हैं वो मिज़्गाँ याद आते हैं - अब्दुल हमीद अदम कविता - Darsaal

वो अबरू याद आते हैं वो मिज़्गाँ याद आते हैं

वो अबरू याद आते हैं वो मिज़्गाँ याद आते हैं

न पूछो कैसे कैसे तीर-ओ-पैकाँ याद आते हैं

वो जिन के तहत झुक जाता था सर असनाम के आगे

वही भूले हुए अहकाम-ए-यज़्दाँ याद आते हैं

जो अक्सर बार-वर होने से पहले टूट जाते थे

वही ख़स्ता शिकस्ता अहद-ओ-पैमाँ याद आते हैं

वो मरमर की तरह शफ़्फ़ाफ़ और हँसते हुए आ'ज़ा

हयात-ए-जाविदाँ के साज़-ओ-सामाँ याद आते हैं

गुमाँ होता है वहशी निकहतों ने भेंच डाला है

कुछ इतने बे-महाबा सुंबुलिस्ताँ याद आते हैं

वो गुल-अंदाज़ जिन का ख़ल्क़ सरमाया था जीने का

वो बन बन कर चराग़-ए-महफ़िल जाँ याद आते हैं

ख़याल आता है जब भी दिलबरों की हम-नशीनी का

तलातुम रंग के ख़ुशबू के तूफ़ाँ याद आते हैं

उड़ी फिरती थी बोसों की चटक जिन की फ़ज़ाओं में

वो एहसासात में डूबे शबिस्ताँ याद आते हैं

फ़क़ीह-ओ-शैख़ के ज़ेहनों में बुत होंगे ख़ुदाओं के

मैं इंसाँ हूँ मुझे तो सिर्फ़ इंसाँ याद आते हैं

पियाला शाम को रखता हूँ जब भी मैं 'अदम' आगे

जवाँ हम-जोलियों के रू-ए-ख़ंदाँ याद आते हैं

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