मय-ख़ाना-ए-हस्ती में अक्सर हम अपना ठिकाना भूल गए
मय-ख़ाना-ए-हस्ती में अक्सर हम अपना ठिकाना भूल गए
या होश में जाना भूल गए या होश में आना भूल गए
अस्बाब तो बन ही जाते हैं तक़दीर की ज़िद को क्या कहिए
इक जाम तो पहुँचा था हम तक हम जाम उठाना भूल गए
आए थे बिखेरे ज़ुल्फ़ों को इक रोज़ हमारे मरक़द पर
दो अश्क तो टपके आँखों से दो फूल चढ़ाना भूल गए
चाहा था कि उन की आँखों से कुछ रंग-ए-बहाराँ ले लीजे
तक़रीब तो अच्छी थी लेकिन दो आँख मिलाना भूल गए
मालूम नहीं आईने में चुपके से हँसा था कौन 'अदम'
हम जाम उठाना भूल गए वो साज़ बजाना भूल गए
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