जुम्बिश-ए-काकुल-ए-महबूब से दिन ढलता है
जुम्बिश-ए-काकुल-ए-महबूब से दिन ढलता है
हाए किस ख़ूबी-ए-उस्लूब से दिन ढलता है
फेंक कुल्फ़त-ज़दा सूरज पे भी छींटे उस के
जिस मय-ए-दिलकश-ओ-मर्ग़ूब से दिन ढलता है
कोशिश-ए-बंदा-ए-दाना नहीं कामिल होती
सोहबत-ए-बंदा-ए-मज्ज़ूब से दिन ढलता है
मेहर के वलवला-ए-रास्त से पौ फटती है
मेहर के जज़्बा-ए-मक़्लूब से दिन ढलता है
साक़िया एक 'अदम' को भी फुरेरी उस की
जिस खनकते हुए मशरूब से दिन ढलता है
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