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बस इस क़दर है ख़ुलासा मिरी कहानी का - अब्दुल हमीद अदम कविता - Darsaal

बस इस क़दर है ख़ुलासा मिरी कहानी का

बस इस क़दर है ख़ुलासा मिरी कहानी का

कि बन के टूट गया इक हबाब पानी का

मिला है साक़ी तो रौशन हुआ है ये मुझ पर

कि हज़्फ़ था कोई टुकड़ा मिरी कहानी का

मुझे भी चेहरे पे रौनक़ दिखाई देती है

ये मो'जिज़ा है तबीबों की ख़ुश-बयानी का

है दिल में एक ही ख़्वाहिश वो डूब जाने की

कोई शबाब कोई हुस्न है रवानी का

लिबास-ए-हश्र में कुछ हो तो और क्या होगा

बुझा सा एक छनाका तिरी जवानी का

करम के रंग निहायत अजीब होते हैं

सितम भी एक तरीक़ा है मेहरबानी का

'अदम' बहार के मौसम ने ख़ुद-कुशी कर ली

खुला जो रंग किसी जिस्म-ए-अर्ग़वानी का

(2002) Peoples Rate This

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