मिरे ख़ुलूस पे शक की तो कोई वज्ह नहीं
मिरे लिबास में ख़ंजर अगर छुपा निकला
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सदा किसे दें 'नईमी' किसे दिखाएँ ज़ख़्म
इस तिलिस्म-ए-रोज़-ओ-शब से तो कभी निकलो ज़रा
मिरे ख़्वाबों की चिकनी सीढ़ियों पर
खड़ा हुआ हूँ सर-ए-राह मुंतज़िर कब से
मैं भी इस सफ़्हा-ए-हस्ती पे उभर सकता हूँ
होंकते दश्त में इक ग़म का समुंदर देखो
सज्दे के हर निशाँ पे है ख़ूँ सा जमा हुआ
दुआ को हाथ मिरा जब कभी उठा होगा
ग़ुबार-ए-दर्द से सारा बदन अटा निकला
हुस्न इक दरिया है सहरा भी हैं उस की राह में
गर्द-ए-फ़िराक़ ग़ाज़ा कश-ए-आइना न हो
हर इंसाँ अपने होने की सज़ा है