माज़ी के रेग-ज़ार पे रखना सँभल के पाँव
बच्चों का इस में कोई घरौंदा बना न हो
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तुम्हारे संग-ए-तग़ाफ़ुल का क्यूँ करें शिकवा
मिरे ख़ुलूस पे शक की तो कोई वज्ह नहीं
मैं भी इस सफ़्हा-ए-हस्ती पे उभर सकता हूँ
होंकते दश्त में इक ग़म का समुंदर देखो
इस तिलिस्म-ए-रोज़-ओ-शब से तो कभी निकलो ज़रा
मिरे ख़्वाबों की चिकनी सीढ़ियों पर
हर इंसाँ अपने होने की सज़ा है
ये हाथ राख में ख़्वाबों की डालते तो हो
दुआ को हाथ मिरा जब कभी उठा होगा
खड़ा हुआ हूँ सर-ए-राह मुंतज़िर कब से
हुस्न इक दरिया है सहरा भी हैं उस की राह में
बहार बन के ख़िज़ाँ को न यूँ दिलासा दे