मैं भी इस सफ़्हा-ए-हस्ती पे उभर सकता हूँ
रंग तो तुम मिरी तस्वीर में भर कर देखो
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खड़ा हुआ हूँ सर-ए-राह मुंतज़िर कब से
बहार बन के ख़िज़ाँ को न यूँ दिलासा दे
सज्दे के हर निशाँ पे है ख़ूँ सा जमा हुआ
ग़ुबार-ए-दर्द से सारा बदन अटा निकला
दुआ को हाथ मिरा जब कभी उठा होगा
होंकते दश्त में इक ग़म का समुंदर देखो
माज़ी के रेग-ज़ार पे रखना सँभल के पाँव
मिरे ख़्वाबों की चिकनी सीढ़ियों पर
ये हाथ राख में ख़्वाबों की डालते तो हो
गर्द-ए-फ़िराक़ ग़ाज़ा कश-ए-आइना न हो
हर इंसाँ अपने होने की सज़ा है